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पर्व और उत्सव


सद्भाव, प्रेम और समरसता के प्रतीक, श्री वार्ष्णेय मन्दिर के पर्व और उत्सव

हमारे देश और समाज की सनातन परम्पराओं में पर्व और उत्सवों का विशेष महत्व है। चूँकि पर्व और उत्सवों को हम मिल-जुल कर सामूहिक रूप से मनाते हैं, अतएव ये पर्व और उत्सव हमारी सामाजिक और धार्मिक संरचना के आधार हैं और राष्ट्र की एकता और अखण्डता एवं सामाजिक सद्भाव और समरसता के पोषक हैं। धार्मिक आस्था के प्रतीक मन्दिरों के निर्माण का उद्देश्य भी पूजन अर्चन के साथ-साथ परस्पर सद्भाव और प्रेम बढ़ाने का ही है। श्री वार्ष्णेय मन्दिर के निर्माण और संचालन का उद्देश्य भी जनकल्याणार्थ सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक कार्यक्रम आयोजित कर सम्पूर्ण जनमानस को उत्कृष्ट चिन्तन, श्रेष्ठ भावना एवं सतसंकल्प का अमृतपान कराना ही है। इसी हेतु मंदिर में प्रतिवर्ष पर्व और उत्सवों का विशेष आयोजन होता है, जो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ होकर वर्ष पर्यन्त चलते रहते हैं, जिनमें मंदिर स्थापना दिवस (पाटोत्सव), श्री कृष्ण जन्माष्टमी, नन्दोत्सव, दीपावली, अन्नकूट एवं होली जैसे महापर्व विशेष रूप से बड़े ही हर्षोल्लास एवं भव्यता से मनाये जाते हैं।

प्रतिवर्ष नवसंवतसर पर विशेष आयोजन होता है। रंगोलियाँ सजाई जाती हैं और मन्दिर-परिसर को भव्य और आकर्षक रूप प्रदान किया जाता है। नववर्ष की शुभकामनाएँ देने हेतु लोग यहाँ एकत्रित होते हैं और परस्पर बधाइयों का आदान-प्रदान करते हैं। यहाँ इस अवसर पर भारत की आत्मा विविधता में एकता के साक्षात दर्शन होते हैं। इसी दिन से प्रारम्भ हो जाता है नौ दिन तक चलने वाले यज्ञ का सिलसिला। वेद मंत्रों के साथ श्री रामनवमी तक भक्त और श्रद्धालु यज्ञ में आहुतियाँ देकर सभी की मंगल कामना करते हैं। श्री राम नवमी के पावन पर्व पर यज्ञ की पूर्ण आहुति होती है, प्रवचन होते हैं और विद्वानों द्वारा पुरुषोत्तम श्री राम के आदर्शों पर चलने को प्रेरित किया जाता है और जनकल्याण की कामना की जाती है। श्री रामनवमी का महत्व श्री वार्ष्णेय मंदिर के लिए और भी बढ़ जाता है क्योंकि इसी शुभ दिन से मन्दिर पाटोत्सव के मनभावन एवं प्रेरक कार्यक्रम प्रारम्भ होते हैं, जो लगभग एक सप्ताह तक चलते हैं। जैसा कि सर्वविदित है- चैत्र शुक्ल त्रयोदशी संवत् 2057 तदनुसार 16 अप्रैल 2000 को मन्दिर में भव्य देव प्रतिमाओं की प्राण-प्रतिष्ठा हुई थी। तभी से अनवरत यह दिन पाटोत्सव के रूप में मनाया जाता है और अनेक चित्ताकर्षक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। देश के कोने-कोने से श्रद्धालु इस अवसर पर आकर श्री वार्ष्णेय भगवान के दर्शन कर पुण्य प्राप्त करते हैं। इस अवसर पर मन्दिर को विविध प्रकार से सजाया और संवारा जाता है। दीपमालिकाओं और झालरों से सजे मन्दिर की छटा देखते ही बनती है। सन्त प्रवचन, श्री कृष्ण लीला मंचन, भक्ति संगीत व भजन गायन एवं देवी जागरण से सम्पूर्ण महानगर का जनमानस भक्ति रस में सराबोर हो परम आनन्द की अनुभूति करता है। यही नहीं सभी वर्गों में आत्म विश्वास एवं परस्पर सद्भाव और प्रेम बढ़ाने हेतु अनेक प्रतियोगिताएँ भी आयोजित की जाती हैं, जिनमें प्रमुख हैं- महिलाओं का भजन संगीत एवं लाक नृत्य, भक्ति रस पूर्ण अन्त्याक्षरी, बच्चों की राधा कृष्ण रूप सज्जा एवं अन्य अनेक कार्यक्रम। नवोदित कवियों को प्रोत्साहित करने हेतु कवि सम्मेलन का आयोजन किया जाता है, जिसमें मंच के स्थापित कवियों के समावेश से कवि सम्मेलन समाज पर अनूठा प्रभाव डालता है। परम्परागत रसिया दंगल एवं ख्याल दंगल आयोजित कर लोकगीत, संगीत की प्राचीन रसधारा का रसास्वादन भी जनताजनार्दन को कराया जाता है।भजन गायन एवं देवी जागरण हेतु देश के नामचीन कलाकार आमंत्रित किये जाते हैं; जिन्हें देखने और सुनने को सारा महानगर उमड़ पड़ता है और भक्ति संगीत के रस में झूमता-नाचता परमानन्द का अनुभव करता है। चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को मन्दिर में विशेष आयोजन होते हैं- प्रातःकाल श्री वार्ष्णेय भगवान, श्री लक्ष्मी नारायण एवं श्री राम दरबार का दूध, दही, शहद, इत्रादि से अभिषेक, श्री विष्णु महायज्ञ, फूल बगला दर्शन, देव प्रतिमाओं के आकर्षक पोषाक में अद्भुत दर्शन, छप्पन भोग दर्शन करने को श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ पड़ती है।रात्रि में महाआरती के समय सैकड़ों-हजारों की संख्या में श्रद्धालु हाथों में घी के दीपों और पुष्पों से सजे थाल लेकर जब भगवान की आरती करते हैं और शंख-घड़ियाल बजते हैं, तो मन्दिर में भक्ति रस की सुरसरि बहने लगती है और असीम आनन्द प्राप्त होता है। अखण्ड भण्डारे में नगर के सभी वर्गों के लोग आते हैं और श्रद्धावनत हो प्रसाद ग्रहण करते हैं एवं ईश्वर के प्रति आभार व्यक्त करते हैं।

ग्रीष्मकाल की तपिश से झुलसी धरती को वर्षा ऋतु के आगमन से तरोताजगी और शीतलता व शान्ति मिलती है। चारों ओर हरियाली और शीतल मन्द सुगन्धित समीर व चिड़ियों के कलरव से सम्पूर्ण परिसर मधुर हो जाता है। बाग-बगीचों की तरुणाई में आम की डाली पर पड़े झूलों पर झूलती बालाएँ प्रकृति के सौन्दर्य को द्विगुणित कर देती हैं, और जब आता है श्रावण मास तो नन्हीं-नन्हीं वर्षा की फुहारों के बीच ब्रज लोक संस्कृति के परम्परागत  पर्व और उत्सवों की तो जैसे धूम ही मच जाती है। ब्रजक्षेत्र में स्थित होनेे के कारण श्री वार्ष्णेय मन्दिर में भी इन पर्वों की अतिशय धूम रहती है। श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को फूलबँगला दर्शन, भगवान वार्ष्णेय सहित सभी देव प्रतिमाओं का भव्य एवं नयनाभिराम श्रंगार और विशेष भाग प्रसाद तथा श्रद्धालुओं की अपार भीड़ जैसे सम्पूर्ण भारत यहाँ एकत्रित हो जाता है। इसके साथ-साथ प्रतिदिन सवामनी भोग प्रसाद और दर्शनार्थियों का अनवरत आगमन, वस्तुतः अद्भुत दृश्य उपस्थित करता है मन्दिर में सम्पूर्ण श्रावण मास के दौरान। यह क्रम चालीस दिनों तक अनवरत चलता है। इसी मास में हरियाली तीजों पर माताएँ और बहिनें विशेष परिधानों में फूलों से सजे हुए झूलों पर झूलते हुए अद्भुत छटा बिखेरती हैं। मन्दिर के भवन में विशेष हरी, पीली एवं विभिन्न प्रकार की घटाओं और पुष्पहारों के संयोजन से ऐसा प्रतीत होता है जैसे प्रकृति ने अपना सब कुछ इस मन्दिर में ही उड़ेल दिया हो। इस अवसर पर गाई जाने वाली मल्हारों से तो सम्पूर्ण परिसर ही सरस और प्रेममय हो जाता है। चारों ओर असीम आनन्द की फुहारें जैसे झरने लगती हैं।

श्रावण मास के समाप्त होने पर भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को मनाये जाने वाला महापर्व श्रीकृष्ण जन्माष्टमी तो अलीगढ़ महानगर का अतिविशिष्ट पर्व है,जो दर्शकों को भारी दर्शकों भीड़ के कारण दो दिनों तक चलता रहता है। मन्दिर को पुष्पहारों और झालरों से सजाया जाता है, विभिन्न प्रकार की स्वचालित झाँकियाँ सजाई जाती हैं जो दर्शकों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करती हैं और दर्शक उन्हें देखकर आनन्द की अनुभूति करते हैं। मन्दिर में दर्शकों और श्रद्धालुओं की इतनी अधिक भीड़ होती है कि इसको व्यवस्थित एवं नियंत्रित करने के लिए स्वयंसेवकों के साथ-साथ पुलिस प्रशासन की भी मदद लेनी पड़ती है। जन्माष्टमी के दिन प्रातःकाल से ही कार्यक्रम प्रारम्भ हो जाते हैं। आचार्यों द्वारा यज्ञ कराया जाता है और विद्वानों द्वारा श्रीकृष्ण के बारे में बौद्धिक दिये जाते हैं।  श्रीकृष्ण धर्म ध्वजा का अभिवादन होता है। रात्रि बारह बजे जब श्रीकृष्ण का अवतरण होता है, तब भक्त लोग शंख, घण्टे, घड़ियाल बजाकर उनके आगमन पर वन्दन एवं स्तवन करते हैं और नन्दलाला के दर्शन कर परम आनन्द की अनुभूति करते हैं।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के तीसरे दिन सभी नगर निवासी नन्दबाबा को बधाई देने हेतु मन्दिर में एकत्रित होते हैं। यह दिवस मन्दिर में नन्दोत्सव के रूप में बड़े ही उल्लास और उमंग से मनाया जाता है। नन्दबाबा और यशोदारानी उपनन्दों के साथ पारम्परिक पोशाकों में नन्दलाला को लेकर मन्दिर में आते हैं। मन्दिर में बधाई देने आये सभी भक्त और श्रद्धालु जयघोष करते हैं और सम्पूर्ण परिमण्डल को गुंजायमान कर देते हैं, फिर शुरू होता है यशोदारानी और नन्दबाबा को बधाई देने का सिलसिला। संगीत की मधुर रसतरंगों पर भजन गायन से सभी ओर आनन्द ही आनन्द दृष्टिगोचर होता है और लोग नन्दबाबा से गले मिलते हैं और बधाई देते हैं और उनसे भेंट लेकर जयजयकार करते हुए चलते चले जाते हैं। वातावरण इतना सहज, सरस, प्रेम और भक्तिमय हो जाता है मानों सम्पूर्ण ब्रजमण्डल ही मन्दिर में उतर आया हो।
कार्तिक मास की अमावस्या को परम्परागत दीपावली महापर्व मन्दिर में मनाये जाने वाला विशेष पर्व है। प्राचीन काल से ही यह पर्व धन वैभव और सम्पन्नता प्रदान करने वाला कहा जाता है। वर्षा ऋतु समाप्त हो जाने के उपरान्त लोग अपने घरों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों की भली प्रकार रंगाई, पुताई कराकर सुन्दरतम् बनाने का प्रयास करते हैं और दीपावली महापर्व के आगमन की तैयारी करते हैं। श्री वार्ष्णेय मन्दिर भी रंगबिरंगी झालरों, झाड़फानूशों एवं पुष्पहारों से सजाया जाता है। अमावस्या की कालरात्रि को दीपालिका से सम्पूर्ण मन्दिर ऐसा अलौकिक और अद्भुत दिखता है मानो हम साक्षात् देव लोक के दर्शन कर रहे हों। नर-नारियों के समूह मन्दिर में आते हैं और भव्य देव प्रतिमाओं के दर्शन कर पुण्य प्राप्त करते हैं। सभी लोग परस्पर गले मिलकर सुखमय जीवन की कामना करते हैं। मन्दिर में विशेष भोग प्रसाद भी बाँटा जाता है। दूसरे दिन गौसंबर्धन पर्व के अवसर पर अन्नकूट समारोह का आयोजन किया जाता है, जिसमें ब्रजगोपों और गोपियों का लोकप्रिय कढ़ी-भात का भोग श्री वार्ष्णेय भगवान को अर्पित कर श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उस प्रसाद को ग्रहण कर असीम सुख प्राप्त करती हैे। सायंकाल एक सौ से अधिक फलों, सब्जियों और मेवाओं का संयोजन कर सुस्वादु सब्जी का भोग प्रसाद पूड़ियों के साथ हजारों की संख्या में आये श्रद्धालुओं में वितरित किया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे ब्रजमण्डल के गोप-गोपियाँ प्रसाद ग्रहण कर रहे हों। ऐसा अलौकिक और मनभावन दृश्य कहीं-कहीं ही देखने को मिलता है। समाज की एकात्मकता के साक्षात् दर्शन यहाँ होते हैं। सचमुच यही तो श्री वार्ष्णेय मन्दिर-निर्माण की आधारभूत सोच है।

ऋतुराज बसन्त का जब आगाज होता है तो प्रकृति अपने यौवन पर होती है, पीले-पीले सरसों और टेसू के फूलों की सुन्दरता एवं बौर से लदी आम की डालियों पर कोयल की कूक से प्रकृति का सौन्दर्य अतुलनीय हो जाता है। ऐसे ही मनमोहक वातावरण में मन्दिर में बसन्त आगमन का स्वागत किया जाता है बसन्त पंचमी से। ठाकुर जी को बसन्ती पोशाक पहनाई जाती  है। बसन्ती रंग के पुष्पहारों से सजा सम्पूर्ण मन्दिर-प्रांगण अद्भुत दृश्य उपस्थित करता है। माँ सरस्वती की वन्दना की जाती है और देर रात तक जनसमूह भजन और होरी गायन का रसास्वादन करता है, मस्ती में झूमता और नृत्य करता है। यह क्रम होली के महापर्व तक नित्य ठाकुरजी की आरती के उपरान्त देर रात तक चलता रहता है। इसी बीच रंगभरनी एकादशी का दिन तो अभूतपूर्व होता है, जिस दिन भक्त लोग रंग, गुलाल और अबीर लगाकर ठाकुरजी से होरी खेलते हैं और मन्दिर-प्रांगण में लठामार होली का आनन्द लेते हैं। ब्रज में बरसाने और नन्दगाँव की लठामार होली की ही तरह सैकड़ों हुरियारी हाथों में लाठी लेकर हुरियारों पर वार करती हैं और यह हुरियारे ढाल से बचाव करते मस्ती में होरी गाते और नाचते हैं। ऐसा लगता है जैसे साक्षात् कान्हा ग्वाल वालों को साथ ले राधारानी और सखियों से बरसाने में होरी खेल रहे हों। कदाचित मन्दिर में उपस्थित जनसमूह रंगों के रूप में हो रही अद्भुत आनन्द की वर्षा में सराबोर हो जाता है। इसी आनन्द के वातावरण में आता है होली-मिलन-समारोह- महानगर के सभी वर्गों के लोग नई-नई पोशाकों में सजे संवरे मन्दिर-परिसर में एकत्रित होते हैं, गले मिलते हैं और परस्पर होली की शुभकामनाएँ प्रेषित करते हैं। प्रेम और सौहार्द का यह मिलन अनेकता में एकता का दिग्दर्शन करता है। निश्चय ही मन्दिर का होली मिलन समारोह समाज में समरसता और सद्भाव की अभिवृद्धि करने वाला अभूतपूर्व उत्सव है। होली मिलन के इस पावन अवसर पर आने वाले सभी सज्जनों का इत्र लगाकर और ठंडाई पिलाकर स्वागत किया जाता है। होली मिलन के उपरान्त सभी लोग दाल, रोटी का सुरुचिपूर्ण भोग प्रसाद ग्रहण करके ही अपने-अपने घरों को लौटते हैं।

इन पर्वों और उत्सवों के अतिरिक्त वर्षभर अन्य अनेक पर्व और उत्सव तथा सामाजिक समारोह मन्दिर प्रांगण में आयोजित होते हैं जिनमें प्रमुख हैं- श्री हनुमान जयन्ती, गुरुपूणर््िामा, अक्षय तृतीया, राधाअष्टमी, दुर्गााष्टमी व रामनवमी, विजयादशमी, शरद पूर्णिमा, मकर संक्रान्ति, आये दिन बाबा नीमकरौरी भजनसंध्या, प्राणायाम और योग साधना शिविर, नेत्र परीक्षण शिविर इत्यादि। इन सभी अवसरों पर समाज के सभी वर्गों का मंदिर में आगमन होता है। सभी लोग देवप्रतिमाओं के दर्शन करते हैं और सदैव सुखी जीवन की परमात्मा से प्रार्थना करते हैं और मनौति माँगते हैं। यथार्थतः श्री वार्ष्णेय मन्दिर हिन्दू पर्वों को आयोजित करने वाला प्रमुख केन्द्र है जिससे समाज में एकता, अखंडता, सद्भाव, सययोग, सेवा और प्रेम की श्रीवृद्धि होती है।

- राजाराम मित्र